राम-भरत मिलाप | Ram-Bharat Milap Ramayan in Hindi | Ramayan Katha

राम-भरत मिलाप | Ram-Bharat Milap Ramayan in Hindi | Ramayan Katha

अनेक प्राकृतिक शोभा वाले दर्शनीय स्थल चित्रकूट पर्वत पर स्थित थे अतः चित्रकूट में निवास करते हुये राम उन दर्शनीय स्थलों का सीता को घूम-घूम कर उनका दर्शन कराने लगे। भाँति-भाँति की बोली बोलने वाले पक्षियों, नयनाभिराम पर्वतमालाओं तथा उनकी शिखरों, विभिन्न प्रकार के फलों से लदे हुये वृक्षों को देखकर सीता अत्यन्त प्रसन्न हुईं। ऐसे ही जब एक दिन राम प्राकृतिक छटा का आनन्द ले रहे थे तो सहसा उन्हें चतुरंगिणी सेना का कोलाहल सुनाई पड़ा और वन्य पशु इधर-उधर भागते हुए दृष्टिगत हुए। इस पर राम लक्ष्मण से बोले, हे सुमित्रानन्दन! ऐसा प्रतीत होता है कि इस वन-प्रदेश में वन्य पशुओं के आखेट हेतु किसी राजा या राजकुमार का आगमन हुआ है। हे वीर! तुम जाकर इसका पता लगओ।

लक्ष्मण तत्काल एक ऊँचे साल वृक्ष पर चढ़ गये और इधर-उधर दृष्टि दौड़ाने लगे। उन्होंने देखा, उत्तर दिशा से एक विशाल सेना हाथी घोड़ों और अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित सैनिकों के साथ चली आ रही है जिसके आगे-आगे अयोध्या की पताका लहरा रही थी। तत्काल ही लक्ष्मण समझ गये कि वह अयोध्या की सेना है।

राम के पास आकर क्रोध से काँपते हुये लक्ष्मण ने कहा, भैया! कैकेयी का पुत्र भरत सेना लेकर चला आ रहा है। अवश्य ही वह वन में अकेला पाकर हम लोगो का वध कर देना चाहता है ताकि निष्कंटक होकर अयोध्या का राज्य कर सके। आज मैं इस षड़यन्त्रकारी भरत को उसके पापों का फल चखाउँगा। भैया! चलिये, कवचों से सुसज्जित होकर पर्वत की चोटी पर चलें।

राम बोले, सौमित्र! तुम ये कैसी बातें कर रहे हो? धनुष तान कर खड़े होने की कोई आवश्यकता नही है। भरत तो मुझे प्राणों से भी प्यारा है। भला भाई का स्वागत अस्त्र-शस्त्रों से किया जाता है? अवश्य ही वह मुझे अयोध्या लौटा ले जाने के लिये आया होगा। भरत में और मुझमें कोई अंतर नहीं है, इसलिये तुमने जो कठोर शब्द भरत के लिये कहे हैं, वे वास्तव में मेरे लिये कहे हैं। स्मरण रखो, किसी भी स्थिति में पुत्र पिता के और भाई-भाई के प्राण नहीं लेता।

राम के भर्त्सना भरे शब्द सुनकर लक्ष्मण बोले, हे प्रभो! सेना में पिताजी का श्वेत छत्र के नहीं है। इसी कारण ही मुझे यह आशंका हुई थी। मुझे क्षमा करें।
पर्वत के निकट अपनी सेना को छोड़कर भरत-शत्रुघ्न राम की कुटिया की ओर चले। उन्होंने देखा, यज्ञवेदी के पास मृगछाला पर जटाधारी राम वक्कल धारण किये बैठे हैं। वे दौड़कर रोते हुये राम के पास पहुँचे। उनके मुख से केवल हे आर्य शब्द निकल सका और वे राम के चरणों में गिर पड़े। शत्रुघ्न की भी यही दशा थी।
राम ने दोनों भाइयों को पृथ्वी से उठाकर हृदय से लगा लिया और पूछा, भैया! पिताजी तथा माताएँ कुशल से हैं न? कुलगुरु वसिष्ठ कैसे हैं? तुमने तपस्वियों जैसा वक्कल क्यों धारण कर रखा है?

रामचन्द्र के वचन सुनकर अश्रुपूरित भरत बोले, भैया! हमारे परम तेजस्वी धर्मपरायण पिता स्वर्ग सिधार गये। मेरी दुष्टा माता ने जो पाप किया है, उसके कारण मुझ पर भारी कलंक लगा है और मैं किसी को अपना मुख नहीं दिखा सकता। अब मैं आपकी शरण में आया हूँ। आप अयोध्या का राज्य सँभाल कर मेरा उद्धार कीजिये। सम्पूर्ण मन्त्रिमण्डल, तीनों माताएँ, गुरु वसिष्ठ आदि सब यही प्रार्थना लेकर आपके पासे आये हैं। मैं आपका छोटा भाई हूँ, पुत्र के समान हूँ, माता के द्वारा मुझ पर लगाये गये कलंक को धोकर मेरी रक्षा करें।
इतना कहकर भरत रोते हुये फिर राम के चरणों पर गिर गये और बार-बार अयोध्या लौटने के लिये अनुनय विनय करने लगे।

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