विष्णु प्रभाकर ( २१ जून १९१२- ११ अप्रैल २००९) हिन्दी के सुप्रसिद्ध लेखक के रूप में विख्यात हुए। उनका जन्म उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के गांव मीरापुर में हुआ था। उनके पिता दुर्गा प्रसाद धार्मिक विचारों वाले व्यक्ति थे और उनकी माता महादेवी पढ़ी-लिखी महिला थीं जिन्होंने अपने समय में पर्दा प्रथा का विरोध किया था। उनकी पत्नी का नाम सुशीला था। विष्णु प्रभाकर की आरंभिक शिक्षा मीरापुर में हुई। बाद में वे अपने मामा के घर हिसार चले गये जो तब पंजाब प्रांत का हिस्सा था। घर की माली हालत ठीक नहीं होने के चलते वे आगे की पढ़ाई ठीक से नहीं कर पाए और गृहस्थी चलाने के लिए उन्हें सरकारी नौकरी करनी पड़ी। चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी के तौर पर काम करते समय उन्हें प्रतिमाह १८ रुपये मिलते थे, लेकिन मेधावी और लगनशील विष्णु ने पढाई जारी रखी और हिन्दी में प्रभाकर व हिन्दी भूषण की उपाधि के साथ ही संस्कृत में प्रज्ञा और अंग्रेजी में बी.ए की डिग्री प्राप्त की। विष्णु प्रभाकर पर महात्मा गाँधी के दर्शन और सिद्धांतों का गहरा असर पड़ा। इसके चलते ही उनका रुझान कांग्रेस की तरफ हुआ और स्वतंत्रता संग्राम के महासमर में उन्होंने अपनी लेखनी का भी एक उद्देश्य बना लिया, जो आजादी के लिए सतत संघर्षरत रही। अपने दौर के लेखकों में वे प्रेमचंद, यशपाल, जैनेंद्र और अज्ञेय जैसे महारथियों के सहयात्री रहे, लेकिन रचना के क्षेत्र में उनकी एक अलग पहचान रही।
विष्णु प्रभाकर ने पहला नाटक लिखा- हत्या के बाद, हिसार में नाटक मंडली में भी काम किया और बाद के दिनों में लेखन को ही अपनी जीविका बना लिया। आजादी के बाद वे नई दिल्ली आ गये और सितम्बर १९५५ में आकाशवाणी में नाट्य निर्देशक के तौर पर नियुक्त हो गये जहाँ उन्होंने १९५७ तक काम किया। वर्ष २००५ में वे तब सुर्खियों में आए जब राष्ट्रपति भवन में कथित दुर्व्यवाहर के विरोध स्वरूप उन्होंने पद्म भूषण की उपाधि लौटाने की घोषणा की। उनका आरंभिक नाम विष्णु दयाल था। एक संपादक ने उन्हें प्रभाकर का उपनाम रखने की सलाह दी। विष्णु प्रभाकर ने अपनी लेखनी से हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया.उन्होंने साहित्य की सभी विधाओं में अपनी लेखनी चलाई। १९३१ में हिन्दी मिलाप में पहली कहानी दीवाली के दिन छपने के साथ ही उनके लेखन का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह आज आठ दशकों तक निरंतर सक्रिय है। नाथूराम शर्मा प्रेम के कहने से वे शरत चन्द्र की जीवनी आवारा मसीहा लिखने के लिए प्रेरित हुए जिसके लिए वे शरत को जानने के लगभग सभी सभी स्रोतों, जगहों तक गए, बांग्ला भी सीखी और जब यह जीवनी छपी तो साहित्य में विष्णु जी की धूम मच गयी। कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, संस्मरण, बाल साहित्य सभी विधाओं में प्रचुर साहित्य लिखने के बावजूद आवारा मसीहा उनकी पहचान का पर्याय बन गयी। बाद में अर्द्धनारीश्वर पर उन्हें बेशक साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला हो, किन्तु आवारा मसीहा ने साहित्य में उनका मुकाम अलग ही रखा।
विष्णु प्रभाकर ने अपनी वसीयत में अपने संपूर्ण अंगदान करने की इच्छा व्यक्त की थी। इसीलिए उनका अंतिम संस्कार नहीं किया गया, बल्कि उनके पार्थिव शरीर को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान को सौंप दिया गया। वे सीने और मूत्र में संक्रमण तथा न्युमोनिया के कारण २३ मार्च २००९ से महाराजा अग्रसेन अस्पताल में भर्ती थे। उन्होंने २० मार्च से खाना-पीना छोड़ दिया था। उनके परिवार में दो बेटे और दो बेटियाँ हैं।
प्रमुख कृतियाँ
उपन्यास- ढलती रात, स्वप्नमयी, अर्धनारीश्वर, धरती अब भी घूम रही है, क्षमादान, दो मित्र, पाप का घड़ा, होरी,
नाटक- हत्या के बाद, नव प्रभात, डॉक्टर, प्रकाश और परछाइयाँ, बारह एकांकी, अशोक, अब और नही, टूट्ते परिवेश,
कहानी संग्रह- संघर्ष के बाद, धरती अब भी धूम रही है, मेरा वतन, खिलोने, आदि और अन्त्,
आत्मकथा- पंखहीन नाम से उनकी आत्मकथा तीन भागों में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है।
जीवनी- आवारा मसीहा,
यात्रा वृतान्त्- ज्योतिपुन्ज हिमालय, जमुना गन्गा के नैहर मै।
सम्मान
पद्म भूषण, अर्धनारीश्वर उपन्यास के लिये भारतीय ज्ञानपीठ का मूर्तिदेवी सम्मान तथा साहित्य अकादमी पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरु अवॉर्ड इत्यादि
विष्णु प्रभाकर :वे जानते थे क्या नहीं लिखना है
हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार और पद्म विभूषण से सम्मानित विष्णु प्रभाकर का पिछले दिनों 97 वर्ष की अवस्था में निधन हो गया। देशभक्ति, राष्ट्रीयता और समाज के उत्थान के लिए निरंतर समर्पित उनकी लेखनी ने हिन्दी को कई कालजयी कृतियां दी, जिनमें ‘ढलती रात’, ‘स्वप्नमयी’, ‘संघर्ष के बाद’ और ‘आवारा मसीहा’ है। उनके उपन्यास ‘अर्धनारीश्वर’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। उन्हें उनकी कालजयी कृति ‘आवारा मसीहा’ के लिए काफी प्रतिष्ठा मिली, जो बंगाली उपन्यासकार शरतचंद्र चटर्जी की जीवनी है। विष्णु प्रभाकर का कॉफी हाऊस से एक खास जुड़ाव रहा। स्मृतियों के हवाले से विष्
णु प्रभाकर से जुड़ी कुछ बातें-
एक बार कॉफी हाऊस में मैंने एक स्त्री का प्रसंग सुनाया। कुछ दिनों बाद उनकी एक कहानी आई-पाषाणी। दूसरी बार जब हम मिले तो मैंने पूछा- आपने तो उस प्रसंग पर कहानी ही लिख दी। ऐसे कई प्रसंगों ने रचना की शक्ल ले ली और हिंदी साहित्य को नए आयामों से समृद्ध किया। इस तरह कॉफी हाऊस की चर्चाओं से भी विष्णु प्रभाकर ने कई कृतियां हिंदी साहित्य को दी। यही कारण था कि वे किसी भी विचारधारा के पिछलग्गू बनके नहीं रहे। अपने समय के हर वय के रचनाकारों से सहज और सीधा संवाद करते थे।
40 वर्षों से उनसे परिचय होना उनके साथ चलते हुए एक रास्ते का होने जैसा था। कनॉट पैलेस (दिल्ली) स्थित मोहन सिंह पैलेस के कॉफी हाऊस की संस्कृति उनकी उपस्थिति से एक रचनात्मक माहौल में बदल जाती थी। इसका कारण उनका लोकतांत्रिक होना था, जिसमें हर विचारधारा के लोगों से वे संवाद करते थे और कभी भी उन्होंने अपने विचार थोपने की कोशिश नहीं की। हां, असहमत होने पर पूरी सादगी और विनम्रता से सुझाव देते थे। वे अपनी रचनाओं और व्यवहार दोनों में जीवन के मर्म और गुत्थियों को बहुत ही सहज और सरल ढंग से खोलते थे। वे हिंदी साहित्य के सभी आंदोलनों के प्रत्यक्षदर्शी थे। सभी आंदोलनों को उनकी रचनाओं ने बल भी प्रदान किया, लेकिन किसी आंदोलन भर के बनकर नहीं रहे वे। उनकी एक कहानी आयी थी- ‘धरती अब भी घूम रही है’। इस कहानी पर नामवर सिंह की टिप्पणी आयी थी कि अब भाषा और शैली नई हो गई है और यह कहानी पुरानी लगती है। इसका जवाब देवीचंद्र अवस्थी ने दिया और कहा था कि पुरानी चीजें सभी खराब नहीं होती और नई सारी चीजें अच्छी नहीं होती। यह एक छोटी घटना थी, लेकिन विष्णु जी ने ऐसी आलोचनाओं का जबाव भी अपनी रचनाओं से ही दिया। वे आंदोलन को उद्देश्य की कसौटी पर कसते थे, न कि किसी राजनीतिक विचारधारा पर। प्रगतिशीलता के पक्ष में वे थे, साथ-साथ अपनी संस्कृति और राष्ट्रीयता उनके लिए अहम थी।
उनके रचनाकर्म की कुछ प्रेरक खासियतें हैं। वे मानते थे कि कुछ भी अंतिम या स्थायी नहीं है। वे कहते थे कि एक साहित्यकार को सिर्फ यह नहीं सोचना चाहिए कि उसे क्या लिखना है, बल्कि इस पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए कि क्या नहीं लिखना है। यथार्थ के सभी रूपों को अपने सौंदर्य चेतना के साथ साहित्य में रचने को वो रचनाकर्म का मुख्य हिस्सा मानते थे। वे तीन साहित्यकारों से प्रभावित थे। उन्हें प्रेमचंद का यथार्थवाद, जैनेन्द्र का विमर्श और शरतचंद्र की घुमक्कड़ी ने काफी प्रभावित किया। इसीलिए उनकी कालजयी कृति ‘आवारा मसीहा’ शरतचंद्र की जीवनी के तौर पर ही नहीं, बल्कि शोद्धपरकता, प्रामाणिकता और प्रवाह के कारण उपन्यास का आनंद देती है। उनके व्यवहार और रचना पर गांधी जी का भी व्यापक प्रभाव था। उनका नाटक ‘सत्ता के आर-पार’ एक पौराणिक कथा के माध्यम से शांति और अहिंसा का आधुनिक बोध पैदा करता है। वे ऐसे विरले हिंदी साहित्यकारों में थे, जिन्हें अन्य भाषाओं के साहित्य प्रेमी भी पूरा सम्मान देते थे।